लोकतंत्र और उसकी अभिव्यक्ति

इस लेख में लोकतंत्र और उसकी अभिव्यक्ति को संक्षिप्त में विश्लेषित किया गया है।

इस लेख में लोकतंत्र और उसकी अभिव्यक्ति को संक्षिप्त में विश्लेषित किया गया है।

लोकतंत्र और उसकी अभिव्यक्ति

सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक कार्यशाला में कहा था कि कार्यपालिका, न्यायपलिका और नौकरशाही की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता है।

प्रत्येक भारतीय को नागरिक के रूप में सरकार की आलोचना करने का अधिकार है और इस प्रकार की आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित करने की स्थिति में भारत का लोकतंत्र एक पुलिस राज्य के रूप में परिणत हो जाएगा। लगभग 21 महीने के राष्ट्रीय आपात के बाद जेल से स्वतंत्र हुए स्व. पं. अटल विहारी बाजपेयी के निम्नलिखित कथन से परिलक्षित होता है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की महत्ता कितनी अधिक है-

‘‘बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने-सुनने को बहुत हैं अफसाने,
खुली हवा में ज़रा साँस तो ले लें,
कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने?’’

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो, यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है। हाल ही में पैगंबर मोहम्मद के एक कार्टून को लेकर फ्राँस में विवाद छिड़ा हुआ था एवं पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों ने इस पर विरोध जताया। कार्टून बनाने को लेकर फ्राँस में कुछ हमले भी हुए हैं। नोस के चर्च में हुए हमले में तीन लोगों की जान चली गई और इस पर फ्राँस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि कार्टून से तकलीफ हो सकती है परंतु हिंसा स्वीकार्य नहीं है। इस हमले को लेकर मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने अपना समर्थन जाहिर किया था जिसे लेकर सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना हो रही थी। जावेद अख्तर की कुछ पंक्तियों द्वारा उन्हें सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया भी मिली थी-देखा जाए तो कई बार आतंकवादियों के लिये भी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति और मानवाधिकार की बात की जाती है लेकिन स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता में फर्क होता है। मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी भारत के संविधान द्वारा संरक्षित है, पर संविधान की रक्षा कौन करता है? जो संविधान की रक्षा करता है उसके मानवाधिकारों की रक्षा की बात क्यों नहीं की जाती? उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का क्या? आतंकवादियों के मरने पर अगर उनके घर जाकर अफसोस जताया जाता है, तो क्या शहीदों के घर जाने की ज़रूरत नहीं है? क्या उस सिपाही का मानवाधिकार नहीं होता, जिसके ऊपर पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीरी युवक पत्थर फेंकते हैं। इसलिये मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की राष्ट्रहित में मर्यादा निश्चित की जानी आवश्यक है। विश्व के अधिकांश देशों द्वारा अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई है, परंतु ऐसे भी बहुत से देश हैं, जिन्होंने इससे दूरी बना कर रखी है। इस संबंध में अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न सिर्फ अधिकार है बल्कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भी रही है, जिसे भारत के धार्मिक ग्रंथों, साहित्य, उपन्यासों आदि में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अभिव्यक्ति के स्वरूपों की बात की जाए तो इसमें किताब, चित्रकला, नृत्य, नाटक, फिल्म निर्माण तथा वर्तमान में सोशल मीडिया को सम्मिलित किया जाता है। इसी प्रकार स्वतंत्र अभिव्यक्ति की भारतीय परंपरा को किसी भी प्रकार से हानि पहुँचने से बचाने हेतु भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा इसे कानूनी वैधता प्रदान करते हुए मूल अधिकारों का हिस्सा बनाया गया तथा अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं में प्रथम स्थान प्रदान किया गया।

किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है, इस पर युक्तियुक्त निर्बंधन हैं। भारत की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता पर खतरे की स्थिति में, वैदेशिक संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव की स्थिति, न्यायालय की अवमानना की स्थिति में इस अधिकार को बाधित किया जा सकता है। भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने व अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है। प्रेस एवं पत्रकारिता भी विचारों के प्रचार का एक साधन ही है इसलिये अनुच्छेद 19 में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है।

सुप्रीम कोर्ट ने विचार और अभिव्यक्ति के मूल अधिकार को ‘लोकतंत्र के राज़ीनामे का मेहराब’ कहा, क्योंकि लोकतंत्र की नींव ही असहमति के साहस और सहमति के विवेक पर निर्भर है। लोकतंत्र एक आधुनिक उदारवादी विचारधारा है, जिसके मूल आदर्शों के रूप में व्यक्ति की गरिमा का सम्मान, स्वतंत्रता, समानता, न्याय तथा शासन व्यवस्था आम जनता की सहमति पर आधारित हो, को शामिल किया जाता है। अत: आम जनता की सहमति का अर्थ है संवाद, चर्चा एवं परिचर्चा को महत्व प्रदान करना, सहमतियों के साथ असहमतियों को सम्मानपूर्वक स्वीकार करना एवं संवाद के माध्यम से असहमतियों में सहमति को स्थापित करना।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत शासन की शक्तियों का आज तक शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता आया है। जिसने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बनाया एवं इसे स्थायित्व प्रदान किया।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, यहाँ एक स्वतंत्र प्रदेश की स्थापना से ही संभव हो पाई है। इसके माध्यम से भारत के दूरदराज़ के क्षेत्रों में लोगों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्राप्त अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी किया गया है। यह जनमत की इच्छाओं तथा अपेक्षाओं के साथ शिकायतों को सरकार तक पहुँचाने का माध्यम भी बनी है। इसकी वज़ह से भारत सरकार अधिक जन-उन्मुखी होकर कार्य करने में सफल रही है तथा कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो पाई है। इसने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ाया है। यही कारण है कि वर्तमान में भारतीय राजव्यवस्था पंचायती राज संस्थाओं के रूप में सहभागी एवं सक्रिय लोकतंत्र की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रही है।

लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें से किसी पर भी आँच आने पर दूसरा स्वत: ही विलुप्ति की कगार पर पहुँच जाता है, जो जनमत पर तानाशाही की स्थापना को बढ़ावा देता है। पत्रकारिता के संबंध में अधिकार एवं उत्तरदायित्व में संतुलन करना आवश्यक है। इसी प्रकार घृणा-संवाद एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मध्य अंतर को समझना भी बहुत ज़रूरी है। मज़बूत लोकतंत्र हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उसकी सीमा का तय होना भी आवश्यक है। इन दोनों में पूरकता के संबंध को स्वीकार करते हुए बढ़ावा देने की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्र लगातार प्रगति के रास्ते पर अग्रसर हो सके, समाज समावेशी बने एवं विश्व में भारतीय संविधान जो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा हेतु प्रसिद्ध है, की गरिमा बरकरार रहे।

By competitiveworld27

Competitive World is your online guide for competitive exam preparation

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *